तो घोषित हो गये चुनाव!
राजीव लोचन साह
तो घोषित हो गये चुनाव! हम होली के रंगों में डूबने की कोशिश कर रहे हैं, मगर देश तो अब चुनाव के रंगों में ही डूबेगा। चुनाव एक तरह का कैथेर्सिस (विरेचक) भी है। यह सब कुछ समतल भी कर देता है। पक्ष-विपक्ष ने अब तक बहुत कुछ जोर आजमा लिया। नरेन्द्र मोदी, उनकी पार्टी और एन.डी.ए. सरकार ने लव जिहाद, गोरक्षकों द्वारा हत्याओं, तीन तलाक, सांवैधनिक संस्थाओं और शिक्षा और संस्कृति के केन्द्र पर नियंत्रण, नया इतिहास गढ़ने, कश्मीरियों और उत्तर पूर्व को अलग-थलग करने, नोटबंदी, जी.एस.टी., राममंदिर आदि सारे दाँव खेल किये। जैसी कि आशंका थी, अन्त में एक ट्रम्प चाल में पुलवामा और सर्जिकल स्ट्राइक के रूप में देश को युद्ध के खतरनाक विन्दु तक धकेलने की कोशिश भी कर डाली। उन्हें संतोष होगा कि जाते-जाते वे अपने भक्तों, जिन्हें ईसाई पादरी अपना फ्लाॅक (भेड़ों का रेहड़) कहते हैं, को एकजुट रख पाने में सफल रहे। विपक्षी दल, जैसा कि वे करते हैं और उन्हें करना भी चाहिये, इन्हीें मुद्दों के आधार पर सरकार को असफल सिद्ध करने की कोशिश करने में जुटे रहे। इन मुद्दों पर सरकार को नीचा दिखाने में तो उन्हें क्या सफल होना था, अलबत्ता आखिर-आखिर में राफेल मुद्दे, जिस पर वे कई महीनों से सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे थे, पर उन्हें सरकार को शिकस्त देने में सफलता जरूर मिल गई। एक हताश कोशिश के रूप में वे मोदी, भाजपा और एन.डी.ए. के खिलाफ उसी तरह एकजुट हो रहे हैं, जैसे साठ के दशक के अन्त राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में गैर कांग्रेसवाद के लिये हुए थे। भगवा, लाल, हरे, नीले, पीले, सफेद रंग के ये सभी पाखंडी इस बार की होलियों में अब फिर से मतदाताओं को रिझाने के लिये आयेंगे। उस बेहिसाब पैसे से वे वोट खरीदेंगे, जो उन्होंने देश की बहुमूल्य सम्पदा लुटा देने की एवज में अपने काॅरपोरेट आकाओं से प्राप्त किये होगे। एक चुनाव और आकर निपट जायेगा और देश थोड़ा और पीछे चला जायेगा, क्योंकि मतदाता के पास लोकतंत्र की समझ ही नहीं है।